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गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

शनिवार कला मेला

एक था शनिवार कला मेला

सन् 1982 में दिल्ली में आयोजित हुए एशियाई खेलों के चक्कर में सुरक्षा व्यवस्था के चलते प्रशासन को बहाना मिल गया और इसकी गाज गिरी कला मेले पर। इस तरह कला, कलाकार और आम लोगों को आपस में जोड़ने वाले एक अच्छे प्रयास ने दम तोड़ दिया।

देश की राजधानी के कुछ कलाकारों ने मिलकर कला और कलाकारों का आमजन से सीधा साक्षात्कार कराने के दिशा में एक बेहतरीन कार्य किया था। 80 के दशक में दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस स्थित सेन्ट्रल पार्क में एक अनूठी कला प्रदर्शनी के नियमित आयोजन का शुभारम्भ किया था। भारीभरकम कला दीर्घाओं के विपरीत खुले आकाश तले कलाकृतियों का प्रदर्शन और वहीं कलाकारों की उपस्थिति लोगों को बहुत पसन्द आयी। कलाकृतियों के साथ-साथ गिरिधर राठी की कविताओं और उनके साथ चित्रांकनों की प्रस्तुति भी एक अच्छा प्रयोग था।


स्थानीय कला प्रेमियों के अलावा देशी-विदेशी पर्यटकों को भी इस कला प्रदर्शन के आयोजन ने सहज ही आकर्षित किया। हर शनिवार को लगने वाले इस कला मेले या प्रदर्शनी का लोग इन्तजार करते थे। छोटे-बड़े ईंट-पत्थर के टुकड़ों और सीढ़ियों के सहारे टिकी कलाकृतियों का अवलोकन करते हुए दर्शक अनूठे आनन्द का अनुभव करते थे। वे पास ही जमीन पर बैठे कलाकारों से कला और उनकी कलाकृतियों के बारे में निःसंकोच बातें करते, तरह-तरह के प्रश्न करते और अपनी जिज्ञासा शान्त करते।

इस कला मेले के बारे में प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी खूब चर्चा हुई। हालांकि तब आज की भांति इतने सारे टीवी चैनल नहीं थे। दूरदर्शन पर शनिवार कला मेले को लेकर कार्यक्रम दिखाए जाते थे। स्थानीय अखबारों में इस खुले आकाश तले हर शनिवार आयोजित होने वाली कला प्रदर्शनी के बारे में छपता रहता था। इस प्रकार जानकारी पाकर दूर-पास के अनगिनत लोग कलाकृतियां देखने कनॉट प्लेस के सेन्ट्रल पार्क में आया करते थे। शनिवार या शनिवारीय कला मेला के नाम से जाना जाने वाला यह कला मेला काफी लोकप्रिय हो गया था। इसी प्रकार ललित कला महाविद्यालय के छात्रों और कुछ उत्साही युव कलाकारों ने चलती-फिरती कला प्रदर्शनी की शुरूआत भी की थी। ये लोग राजधानी के अलग-अलग भागों में हर शनिवार चित्र प्रदर्शनी लगाते थे।


इस कला मेले में चूंकि कलाकार अपनी कलाकृतियों के साथ स्वयं उपस्थित रहते थे अतः अनेक दर्शक अपने पोर्ट्रैट उनमें से कई कलाकारों से बनवाया करते थे। यही नहीं अनेक लोग अपने इष्ट मित्रों से मिलने के लिए इस कला मेले के स्थान ही तय कर देते थे। यहां जमीन आकर जमीन पर बैठकर अपनी कलाकृतियों को प्रदर्शित करने वालों में अनेक जानेमाने कलाकार थे। अनिल करंजई, सूरज घई, गिरधर राठी, सपन विश्वास, सतीश चैहान, कार्टूनिस्ट चन्दर (यानी मैं, तब दिल्ली के ललित कला महाविद्यालय में बीएफ़ए का छात्र था), अशोक कुमार सिंह, अशेक कुमार आदि के अलावा ललित कला महाविद्यालय, जामिया मिल्लिया, शारदा वकील, शिल्प कला विद्यालय आदि के अनेक छात्र कलाकार यहां नियमित रूप से आया करते थे। इनके अलावा देशी-विदेशी पर्यटक और अन्य कला प्रेमियों का हर शनिवार अच्छा जमावड़ा रहता था।


जहां अनगिनत लोग इस प्रयास को एक अच्छी गतिविधि मानते थे। नयी दिल्ली नगर पालिका और पुलिस ने इस कला मेले को अनेक बार हटाने, उजाड़ने या बन्द कराने के लिए बहुत कोशिशें कीं पर कला प्रेमियों के सक्रिय और कड़े विरोध के चलते उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। सन् 1982 में दिल्ली में आयोजित हुए एशियाई खेलों के चक्कर में सुरक्षा व्यवस्था के चलते प्रशासन को बहाना मिल गया और इसकी गाज गिरी कला मेले पर। इस तरह कला, कलाकार और आम लोगों को आपस में जोड़ने वाले एक अच्छे प्रयास ने दम तोड़ दिया।

एशियाई खेलों के समापन के बाद भी तमाम दिक्कतों के चलते पुनः शनिवार कला मेला शुरू नहीं हो सका। मगर लोगों के मन-मस्तिष्क में इतना समय बीत जाने के बाद भी शनिवारीय कला मेला विद्यमान है। अब भी मुझे कभी-कभी उस कला मेले को याद करने वाले कला प्कौरेमी मिल जाते हैं। न जाने कब कोई कलाकार इससे प्रेरणा लेकर पुनः शनिवारीय कला मेला जैसा कोई आयोजन शुरू कर दे!
• सभी चित्र: चन्दर

इस कला मेले में चूंकि कलाकार अपनी कलाकृतियों के साथ स्वयं उपस्थित रहते थे अतः अनेक दर्शक अपने पोर्ट्रैट उनमें से कई कलाकारों से बनवाया करते थे। यही नहीं अनेक लोग अपने इष्ट मित्रों से मिलने के लिए इस कला मेले के स्थान ही तय कर देते थे। यहां जमीन आकर जमीन पर बैठकर अपनी कलाकृतियों को प्रदर्शित करने वालों में अनेक जानेमाने कलाकार थे

बुधवार, 1 सितंबर 2010

गुलामी स्मृति खेल

गुलामी स्मृति खेलों ने शेर को बनाया बाघ


गुलामी स्मृति खेलों के शुभंकर या मस्कट शेरा या शेर को देखिए, वह शेर है ही नहीं अपितु बाघ या व्याघ्र या चीता है। यदि यह शेर है तो आप बाघ या व्याघ्र या चीता किसे कहेंगे? शेरा हिन्दी के शब्द शेर से बनाया गया है पर इस नाम को अंग्रेजी में टाइगर कहा गया है।

हम बचपन से ही सुनते पढ़ते आ रहे हैं कि जंगल में बहुत से जानवर रहते हैं जिनमें एक शेर भी होता है। उसे जंगली जानवरों का राजा या जंगल का राजा कहा जाता है। शेर को अंग्रेजी में लायन (lion) कहा जाता है। इसी तरह एक अन्य जंगली जानवर होता है बाघ या व्याघ्र या चीता जिसे अंग्रेजी में टाइगर (tiger) कहा जाता है।


यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि जंगल के राजा शेर या शेरा को कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 का शुभंकर तैनात किया गया है। (कॉमनवेल्थ का अर्थ इस तरह समझा जा सकता है-किसी देश की सम्पूर्ण प्रजा, राष्ट्रमण्डल, अंग्रेजों के गुलाम रहे देशों के समूह और गेम्स यानी खेल, ऐसे आयोजन से अपनी गुलामी की स्मृति को ताज़ा रखा जाता है और इस बहाने मुट्ठी भर जुगाड़ू लोगों को जनता के पसीने की कमाई में से धनार्जन के पर्याप्त सुअवसर मिलते हैं। प्राय: अधिकांश काम तब किए जाते हैं जब समय कम रह जाता है ताकि जल्दी के चक्कर में काफ़ी ऊंची दरों पर काम कराया जाए।) हम लोग किसी पदक-प्रसिद्धि के लालच में नहीं फ़ंसते सो काम जल्दी पूरा करने की जल्दी भी नहीं होती, ऐसे में हमारे खिलाड़ियों को उपयुक्त स्टेडियम अभ्यास के लिए उपलब्ध कराने की जरूरत भी नहीं रह जाती। जब पदक हम ले लेंगे तो अन्य गुलाम देश क्या यहां झख मारने आयेंगे! जो हमें चाहिए वह हम समेटने में कुशल हैं ही!
चित्र: कॉमनवेल्थ गेम्स २०१० दिल्ली का शुभंकर शेरा

खैर, गुलाम स्मृति खेलों के शुभंकर या मस्कट (mascot) शेरा या शेर को देखिए, वह शेर है ही नहीं अपितु बाघ या व्याघ्र या चीता है। यदि यह शेर है तो आप बाघ या व्याघ्र या चीता किसे कहेंगे? शेरा हिन्दी के शब्द शेर से बनाया गया है पर इस नाम को अंग्रेजी में टाइगर कहा गया है। कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 के जिम्मेदार पदाधिकारियों-सलाहकारों और उनका काम करने वाली सम्बन्धित एजेंसी की हिन्दी बह्त अधिक कमजोर है, इन लोगों ने मिलकर बाघ को शेर बना डाला है। इनके अनुसार शेर का अर्थ है टाइगर और चित्र के रूप में भी टाइगर ही स्वीकार है शेर नहीं। यानी बच्चों को यही बताया जाए कि अब शेर, शेर नहीं बाघ है और बाघ, बाघ नहीं शेर है या फ़िर शेर यानी टाइगर!


कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 की आधिकारिक वेबसाइटhttp://www.cwgdelhi2010.org/ में दियागया है-
Shera, mascot of the XIX Commonwealth Games 2010 Delhi, is the most visible face of the XIX Commonwealth Games 2010 Delhi. His name comes from the Hindi word Sher – meaning tiger.
(शेरा, 19वें राष्ट्रमण्डल खेल 2010 दिल्ली का शुभंकर, 19वें राष्ट्रमण्डल खेल 2010 दिल्ली सबसे अधिक दिखाई देने वाला चेहरा है। उसका नाम हिंदी शब्द शेर से लिया गया है- जिसका अर्थ है बाघ।)
चित्र: शेरा का ब्लॉग


और शेरा के ब्लॉगhttp://www.cwgdelhi2010.org/?q=node/1637 में भी स्पष्ट लिखा गया है-Name: Shera.......In Indian mythology, the tiger is associated with Goddess Durga, the embodiment of Shakti (or female power) and the vanquisher of evil. She rides her powerful vehicle – the tiger – into combat, especially in her epic and victorious battle against Mahishasur, a dreaded demon.

My name comes from the Hindi word Sher – meaning tiger. I represent the modern Indian.
चित्र: विकीपीडिया में शेरा


(नाम: शेरा....... भारतीय पौराणिक कथाओं में, बाघ देवी दुर्गा, शक्ति का अवतार (या महिला शक्ति) और बुराई की विजेता से जुड़ा है। महाकाव्य में विशेष रूप से एक भयानक राक्षस महिषासुर से निपटने में वह अपने शक्तिशाली वाहन बाघ की सवारी करती है।

मेरा नाम हिंदी शब्द शेर से आता है- जिसका अर्थ है बाघ। मैं आधुनिक भारतीय का प्रतिनिधित्व करता हूं।)

काश! शेर पढ़ा-लिखा होता तो अपने बारे में इन लोगों के अज्ञान को लेकर उन्हें अब तक सबक सिखा देता। यह वैसा ही है जैसे गांधी जी के फ़ोटो के नीचे सरदार पटेल का नाम लिख दिया जाए और अपनी कारस्तानी को सही सिद्ध करने के लिए कुतर्क भी दिए जाएं और लोगों के मन-मस्तिष्क में उसे बिठाने के लिए तरह-तरह के आधुनिक उपाय अपनाए जाएं। इस ओर देश के तमाम पढ़े-लिखे और विद्वान लोगों का ध्यान क्यों नहीं जाता, चारों ओर मौन स्वीकृति पसरी हुई है। जो जिम्मेदार लोग हैं वे अपने-अपने खेलों में लगे हुए हैं जिससे दुनिया भर में थू-थू हो चुकी है, हो रही है।

चित्र: शेर/सिंह, बाघ/व्याघ्र, शेरा और बाघ


सन्दर्भ के लिए दिए चित्रों के लिए बहुत-बहुत आभार

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

संकल्प

संकल्प से पाएं सफलता
ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि और अनेकानेक संसाधनों के अलावा संकल्प करने की क्षमता भी प्रदान की है। संकल्प कर लेने के बाद अपने पिछले कार्यों, व्यवहार, अभ्यास, आदतों आदि पर स्वयं अपने आलोचक बनकर दृष्टि डालनी चाहिए। संकल्प कर्म के बिना व्यर्थ है। गलत ढंग से और बिना कार्य योजना के कर्म करते जाना भी व्यर्थ है। स्वयं अपने प्रति, अपने संकल्प के प्रति और अपने प्रयासों के प्रति ईमानदार रहना बेहद जरूरी है। 

हम अपने आसपास नजर घुमाएं तो बड़ी आसानी से जान जाएंगे कि ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने अपने दृढ़ संकल्प के बल पर मनचाही सफलता प्राप्त की है। दुनिया का इतिहास दृढ़ निश्चय के बल पर सफलता पाने वालों के उदाहरणों से भरा हुआ है। बिना विचलित हुए दृढ़ संकल्प और कर्म कर अनगिनत लोगों ने आश्चर्यजनक सुपरिणाम हासिल किये हैं। किसी परेशानी, मुसीबत और बाधा से उनके कदम रुके नहीं। वे अपने संकल्प को ध्यान में रख जुटे रहे और सफल हुए।

सफल होने वाले व्यक्ति किसी और ग्रह के वासी या हाड़-मांस के अलावा किसी और चीज के बने नहीं होते। वे सिर्फ यह जानते थे कि दृढ़ संकल्प के बल पर ही अपना लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता हैं। यह भी महत्वपूर्ण है कि केवल दृढ़ संकल्प से काम चलने वाला नहीं है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए निराशा से मुक्ति पाकर हर अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति में अपना उत्साह बनाए रखना, समय का एक पल भी नष्ट न करना, परिश्रम से न घबराना, र्धर्य बनाए रखना, समुचित कार्ययोजना बनाकर अमल में लाना आदि पर ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक है।

यदि आप किसी व्यक्ति की सफलता का रहस्य पूछें तो वह यही बताएगा कि उसने ठान लिया था कि वह ऐसा कर के या बन के रहेगा, चाहे कुछ भी हो जाए और इसके लिए चाहे कुछ भी करना पड़े। दुनिया की कोई शक्ति उसे विचलित नहीं कर सकती। किसी व्यक्ति को हो सकता है सफलता आसानी से या संयोगवश मिल गयी हो। ऐसा अपवाद स्वरूप ही हो सकता है। इस प्रकार के किसी संयोग का इन्तजार में भाग्य के भरोसे बैठ सफलता पाने की सोचना मूर्खता के सिवा कुछ और नहीं। हां, उपयुक्त अवसर को कभी छोड़ना नहीं चाहिए। इसकी पहचान अपने विवेक और दूरदृष्टि से की जा सकती है।

इच्छाशक्ति संकल्प जैसे बहुमूल्य सिक्के का दूसरा पहलू है। यह हमारे संकल्प को दृढ़ता प्रदान करती है। इसलिए अपनी इच्छाशक्ति को कभी कमजोर नहीं होने देना चाहिए। इससे हमें निराशा जैसी नकारात्मक स्थिति से भी छुटकारा मिलता है। ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि और अनेकानेक संसाधनों के अलावा संकल्प करने की क्षमता भी प्रदान की है। संकल्प कर लेने के बाद अपने पिछले कार्यों, व्यवहार, अभ्यास, आदतों आदि पर स्वयं अपने आलोचक बनकर दृष्टि डालनी चाहिए। संकल्प कर्म के बिना व्यर्थ है। गलत ढंग से और बिना कार्य योजना के कर्म करते जाना भी व्यर्थ है। स्वयं अपने प्रति, अपने संकल्प के प्रति और अपने प्रयासों के प्रति ईमानदार रहना बेहद जरूरी है।

शिक्षा और करियर ही नहीं व्यवहार व आदतों के मामले में भी संकल्प महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संकल्प तथा कर्म से मिली सफलता किसी पैमाने से नापना व्यर्थ है। कोई सफलता छोटी या बड़ी नहीं। सफलता सफलता होती है और उसका अपना महत्व होता है। आवश्यक नहीं कि आप हर बार अपना संकल्प पूरा कर सफल होते चले जाएं। आज जो लोग हमें सफलता के शिखर पर बैठे दिखायी देते हैं वे ही जानते हैं कि वे कितनी बार असफल हुए हैं। पर असफताएं उन्हें विचलित नहीं कर सकीं। कुछ लोग, विशेष रूप से अनेक युवा थोड़ा असफल होने पर हिम्मत हार जाते हैं। ऐसे अनेक लोग नशे की शरण में चले जाते है और फिर अपनी कहानी औरों को सुनाते फिरते हैं। कोई उन्हें गम्भीरता से नहीं सुनता। अक्सर लोग मजाक ही उड़ाते हैं। नतीजा यह कि असफता से घबराने की जरूरत नहीं क्यों कि किसी व्यक्ति की बड़ी सफलता के पीछे अनेक छोटी-बड़ी असफलताएं हो सकती हैं जिनके बारे में प्रायः सभी लोग नहीं जान पाते हैं। असफल होने पर भी संकल्प, इच्छाशक्ति और सकारात्मक विचारों से फिर सक्रिय होकर अपना लक्ष्य पाया जा सकता है।

संकल्प के पीछे विचारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। सकारात्मक, आशावादी, परोपकारी और अच्छे विचार राह से भटकने नहीं देते। जैसा हम बीज बोते हैं वैसी ही फसल हम काटते हैं। हमारा मस्तिष्क हमारे सभी  क्रियाकलापों को नियंत्रित करता है और हमारे विचारों के अनुसार ही मस्तिष्क सक्रिय होकर हमारे संकल्पों को पूरा करने की क्षमता पाता है। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे मस्तिष्क के चेतन और अवचेतन दोनों ही भाग महत्वपूर्ण और उपयोगी हैं।  चेतन भाग विभिन्न सूचनाएं, संकेत, क्रियाकलाप आदि में से उपयोगी का चयन कर अवचेतन में भेज देता है। अवचेतन उपयोगी सूचना-संकेतों को स्मृति के रूप में संजोकर रखता है। किसी सूचना या जानकारी की आवश्यकता पड़ने पर ‘इच्छा’ का बटन दबते ही वह उपयुक्त विवरण उपलब्ध करा देता है। अवचेतन हर समय सक्रिय रहता है और विभिन्न समस्याओं के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

अपना लक्ष्य तय कर उसको पाने का दृढ़ संकल्प करें, विचार कर सही और सुव्यवस्थित  योजना बनाएं, आवश्यक संसाधन जुटाएं, पूरे उत्साह से जुट जाएं, छोटी-बड़ी असफलता से न घबराएं और न ही अपने कदम रोकें। अपनी कमियों पर विशेष ध्यान देते हुए सदा उन्हें सूझबूझ से दूर करने का प्रयास करते रहें। इस कार्य में भी अपनी संकल्प शक्ति का उपयोग करें।

© टी.सी चन्दर
 सौजन्य: प्रभासाक्षी
 

शनिवार, 29 मई 2010

जनगणना

जनगणना से जात हटाओ 
आरक्षण की सीमा उच्चतम न्यायालय ने पहले ही बांध रखी है| 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण किसी भी हालत में नहीं दिया जा सकता| यदि आरक्षितों की संख्या 1931 के मुकाबले अब बढ़ गई हो तो भी उनको कोई फायदा नहीं मिलेगा और कुल जनसंख्या के अनुपात में अगर वह घट गई हो तो हमारे देश के नेताओं में इतनी हिम्मत नहीं कि आरक्षण के प्रतिशत को वे घटवा सकें| इसलिए प्रश्न उठता है कि जनगणना में जाति को घसीट कर लाने से किसको क्या फायदा होनेवाला है?

तर्क यह दिया जाता है कि अगर हम दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को आरक्षण देते रहना चाहते हैं तो जन-गणना में जाति का हिसाब तो रखना ही होगा| उसके बिना सही आरक्षण की व्यवस्था कैसे बनेगी ? हॉं, यह हो सकता है कि जिन्हें आरक्षण नहीं देना है, उन सवर्णों से उनकी जात न पूछी जाए| लेकिन इस देश में मेरे जैसे भी कई लोग हैं, जो कहते हैं कि मेरी जात सिर्फ हिंदुस्तानी है और जो जन्म के आधार पर दिए जानेवाले हर आरक्षण के घोर विरोधी हैं| उनकी मान्यता है कि जन्म यानी जाति के आधार पर दिया जानेवाला आरक्षण न केवल राष्ट्र-विरोधी है बल्कि जिन्हें वह दिया जाता है, उन व्यक्तियों और जातियों के लिए भी विनाशकारी है| इसीलिए जन-गणना में से जाति को बिल्कुल उड़ा दिया जाना चाहिए| यदि 2010 की इस जनगणना में जाति को जोड़ा जाएगा तो वह बिल्कुल निरर्थक होगा क्योंकि आरक्षण की सीमा उच्चतम न्यायालय ने पहले ही बांध रखी है| 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण किसी भी हालत में नहीं दिया जा सकता| यदि आरक्षितों की संख्या 1931 के मुकाबले अब बढ़ गई हो तो भी उनको कोई फायदा नहीं मिलेगा और कुल जनसंख्या के अनुपात में अगर वह घट गई हो तो हमारे देश के नेताओं में इतनी हिम्मत नहीं कि आरक्षण के प्रतिशत को वे घटवा सकें| इसलिए प्रश्न उठता है कि जनगणना में जाति को घसीट कर लाने से किसको क्या फायदा होनेवाला है ?

जाति पर आधारित आरक्षण ने गरीबों और वंचितों का सबसे अधिक नुकसान किया है| आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों को आरक्षण से क्या मिलता है ? सिर्फ नौकरियाँ ! 5-7 हजार लोगों के मुंह में सरकारी नौकरियों की चूसनी (लॉलीपॉप) रखकर देश के 60 करोड़ से ज्यादा वंचितों के मुंह पर ताले जड़ दिए गए हैं| उनके विशेष अवसर, विशेष सुविधा और विशेष सहायता के द्वार बंद कर दिए गए हैं| उन्हें खोलना बहुत जरूरी है| क्या 5 हजार रेवडि़याँ बांट देने से 60-70 करोड़ वंचितों के पेट भर जाएंगे? आरक्षण न सिर्फ उनके पेट पर लात मारता है बल्कि उनके सम्मान को भी चोट पहुंचाता है| जो अपनी योग्यता से भी चुनकर आते हैं, उनके बारे में भी मान लिया जाता है कि वे आरक्षण (कोटे) के चोर दरवाज़े से घुस आए हैं| हमारे नेताओं ने जाति को आरक्षण का सबसे सरल आधार मान लिया था लेकिन अब वह सबसे जटिल आधार बन गया है| अभी आरक्षण का आधार बहुत संकरा है, उसे बहुत चौड़ा करना जरूरी है| जाति का आधार सिर्फ हिन्दुओं पर लागू होता है| इसके कारण हमारे देश के मुसलमानों और ईसाइयों में जो वंचित लोग हैं, उनको भी बड़ा नुकसान हुआ है| जिसे जरूरत थी, उसे रोटी नहीं मिली और जिसके पास जात थी, वह मलाई ले उड़ा|


जन-गणना में जाति का समावेश किसने किया, कब से किया, क्यों किया, क्या यह हमें पता है ? यह अंग्रेज ने किया, 1871 में किया और इसलिए किया कि हिंदुस्तान को लगातार तोड़े रखा जा सके| 1857 की क्रांति ने भारत में जो राष्ट्रवादी एकता पैदा की थी, उसकी काट का यह सर्वश्रेष्ठ उपाय था कि भारत के लोगों को जातियों, मजहबों और भाषाओं में बांट दो| मज़हबों और भाषाओं की बात कभी और करेंगे, फिलहाल जाति की बात लें| अंग्रेज के आने के पहले भारत में जाति का कितना महत्व था ? क्या जाति का निर्णय जन्म से होता था ? यदि ऐसा होता तो दो सौ साल पहले तक के नामों में कोई जातिसूचक उपनाम या 'सरनेम' क्यों नहीं मिलते ? राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, महेश, बुद्घ, महावीर किसी के भी नाम के बाद शर्मा, वर्मा, सिंह या गुप्ता क्यों नहीं लगता ? कालिदास, कौटिल्य, बाणभट्रट, भवभूति और सूर, तुलसी, केशव, कबीर, बिहारी, भूषण आदि सिर्फ अपना नाम क्यों लिखते रहे ? इनके जातिगत उपनामों का क्या हुआ ? वर्णाश्रम धर्म का भ्रष्ट होना कुछ सदियों पहले शुरू जरूर हो गया था लेकिन उसमें जातियों की सामूहिक राजनीतिक चेतना का ज़हर अंग्रेजों ने ही घोला| अंग्रेजों के इस ज़हर को हम अब भी क्यों पीते रहना चाहते हैं ? मज़हब के ज़हर ने 1947 में देश तोड़ा, भाषाओं का जहर 1964-65 में कंठ तक आ पहुंचा था और अब जातियों का ज़हर 21 वीं सदी के भारत को नष्ट करके रहेगा| जन-गणना में जाति की गिनती इस दिशा में बढ़नेवाला पहला कदम है| इसीलिए हमारे संविधान निर्माताओं और आजाद भारत की पहली सरकार ने जनगणना में से जाति को बिल्कुल हटा दिया था|1931 में आखिर अंग्रेज 'सेंसस कमिश्नर' जे.एच. हट्टन ने जनगणना में जाति को घसीटने का विरोध क्यों किया था ? वे कोरे अफसर नहीं थे| वे प्रसिद्घ नृतत्वशास्त्री भी थे| उन्होंने बताया कि हर प्रांत में हजारों-लाखों लोग अपनी फर्जी जातियॉं लिखवा देते हैं ताकि उनकी जातीय हैसियत ऊँची हो जाए| कुछ जातियों के बारे में ऐसा भी है कि एक प्रांत में वे वैश्य है तो दूसरे प्रांत में शूद्र| एक प्रांत में वे स्पृश्य हैं तो दूसरे प्रांत में अस्पृश्य ! हर जाति में दर्जनों से लेकर सैकड़ों उप-जातियॉं हैं और उनमें भी ऊँच-नीच का झमेला है| 58 प्रतिशत जातियॉ तो ऐसी हैं, जिनमें 1000 से ज्यादा लोग ही नहीं हैं| उन्हें ब्राह्रमण कहें कि शूद्र, अगड़ा कहें कि पिछड़ा, स्पृश्य कहें कि अस्पृश्य - कुछ पता नहीं| आज यह स्थिति पहले से भी बदतर हो गई है, क्योंकि अब जाति के नाम पर नौकरियॉं, संसदीय सीटें, मंत्री और मुख्यमंत्री पद, नेतागीरी और सामाजिक वर्चस्व आदि आसानी से हथियाएं जा सकते हैं| लालच बुरी बलाय ! लोग लालच में फंसकर अपनी जात बदलने में भी संकोच नहीं करते| सिर्फ गूजर ही नहीं हैं, जो 'अति पिछड़े' से 'अनुसूचित' बनने के लिए लार टपका रहे हैं, उनके पहले 1921 और 1931 की जन-गणना में अनेक राजपूतों ने खुद को ब्राह्रमण, वैश्यों ने राजपूत और कुछ शूद्रों ने अपने आप को वैश्य और ब्राह्रमण लिखवा दिया| जिन स्त्री और पुरूषों ने अंतरजातीय विवाह किया है, उनकी संतानें अपनी जात क्या लिखेगी ? जनगणना करने वाले कर्मचारियों के पास किसी की भी जात की जाँच-परख करने का कोई पैमाना नहीं है| हर व्यक्ति अपनी जात जो भी लिखाएगा, उसे वही लिखनी पड़ेगी| वह कानूनी प्रमाण भी बनेगी| कोई आश्चर्य नहीं कि जब आरक्षणवाले आज़ाद भारत में कुछ ब्राह्रमण अपने आप को दलित लिखवाना पसंद करें बिल्कुल वैसे ही जैसे कि जिन दलितों ने अपने आप को बौद्घ लिखवाया था, आरक्षण से वंचित हो जाने के डर से उन्होंने अपने आप को दुबारा दलित लिखवा दिया| यह बीमारी अब मुसलमानों और ईसाइयों में भी फैल सकती है| आरक्षण के लालच में फंसकर वे इस्लाम और ईसाइयत के सिद्घांतों की धज्जियां उड़ाने पर उतारू हो सकते हैं | जाति की शराब राष्ट्र और मज़हब से भी ज्यादा नशीली सिद्घ हो सकती है|

आश्चर्य है कि जिस कांग्रेस के विरोध के कारण 1931 के बाद अंग्रेजों ने जन-गणना से जाति को हटा दिया था और जिस सिद्घांत पर आज़ाद भारत में अभी तक अमल हो रहा था, उसी सिद्घांत को कांग्रेस ने सिर के बल खड़ा कर दिया है| कांग्रेस जैसी महान पार्टी का कैसा दुर्भाग्य है कि आज उसके पास न तो इतना सक्षम नेतृत्व है और न ही इतनी शक्ति कि वह इस राष्ट्रभंजक मांग को रद्द कर दे| उसे अपनी सरकार चलाने के लिए तरह-तरह के समझौते करने पड़ते हैं|
आश्चर्य है कि जिस कांग्रेस के विरोध के कारण 1931 के बाद अंग्रेजों ने जन-गणना से जाति को हटा दिया था और जिस सिद्घांत पर आज़ाद भारत में अभी तक अमल हो रहा था, उसी सिद्घांत को कांग्रेस ने सिर के बल खड़ा कर दिया है| कांग्रेस जैसी महान पार्टी का कैसा दुर्भाग्य है कि आज उसके पास न तो इतना सक्षम नेतृत्व है और न ही इतनी शक्ति कि वह इस राष्ट्रभंजक मांग को रद्द कर दे| उसे अपनी सरकार चलाने के लिए तरह-तरह के समझौते करने पड़ते हैं| भाजपा ने अपने बौद्घिक दिग्भ्रम के ऐसे अकाट्य प्रमाण पिछले दिनों पेश किए हैं कि जाति के सवाल पर वह कोई राष्ट्रवादी स्वर कैसे उठाएगी| आश्चर्य तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मौन पर है, जो हिंदुत्व की ध्वजा उठाए हुए है लेकिन हिंदुत्व को ध्वस्त करनेवाले जातिवाद के विरूद्घ वह खड़गहस्त होने को तैयार नहीं है| समझ मे नहीं आता कि वर्ग चेतना की अलमबरदार कम्युनिस्ट पार्टियों को हुआ क्या है ? उन्हें लकवा क्यों मार गया है ? सबसे बड़ी विडंबना हमारे तथाकथित समाजवादियों की है| कार्ल मार्क्स कहा करते थे कि मेरा गुरू हीगल सिर के बल खड़ा था| मैंने उसे पाव के बल खड़ा कर दिया है लेकिन जातिवाद का सहारा लेकर लोहिया के चेलों ने लोहियाजी को सिर के बल खड़ा कर दिया है| लोहियाजी कहते थे, जात तोड़ो| उनके चेले कहते हैं, जात जोड़ो| नहीं जोड़ेंगे तो कुर्सी कैसे जुड़ेगी ? लोहिया ने पिछड़ों को आगे बढ़ाने की बात इसीलिए कही थी कि समता लाओ और समता से जात तोड़ो| रोटी-बेटी के संबंध खोलो| जन-गणना में जात गिनाने से जात टूटेगी या मजबूत होगी ? जो अभी अपनी जात गिनाएंगे, वे फिर अपनी जात दिखाएंगे| कुर्सियों की नई बंदर-बांट का महाभारत शुरू हो जाएगा| जातीय ईर्ष्या का समुद्र फट पड़ेगा| आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका है कि जब सारे राजनीतिक दल एक तरफ हैं और भारत की जनता दूसरी तरफ ! इस मुद्दे पर भारत के करोड़ों नागरिक जब तक बगावत की मुद्रा धारण नहीं करेंगे, हमारे नेता निहित स्वार्थों में डूबे रहेंगे| जो लोग अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में जाति के जाल में फंसे रहना चाहते हैं, फंसे रहें लेकिन राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में से जाति का पूर्ण बहिष्कार होना चाहिए|

दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, ग्रामीणों, गरीबों को आगे बढ़ाने का अब एक ही तरीका है| सिर्फ शिक्षा में आरक्षण हो, पहली से 10 वीं कक्षा तक| आरक्षण का आधार सिर्फ आर्थिक हो| जन्म नहीं, कर्म ! आरक्षण याने सिर्फ शिक्षा ही नहीं, भोजन, वस्त्र्, आवास और चिकित्सा भी मुफ्त हो| प्रत्येक व्यक्ति शिक्षा के माध्यम से सक्षम बने और जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करे, वह अपने दम-खम से प्राप्त करे| यह विशेष अवसर के सिद्घांत का सर्वश्रेष्ठ अमल है| इस व्यवस्था में जिसको जरूरत है, वह छूटेगा नहीं और जिसको जरूरत नहीं है, वह घुस नहीं पाएगा, उसकी जात चाहे जो हो| जात पर आधरित नौकरियों का आरक्षण चाहे तो अभी कुछ साल और चला लें लेकिन उसे समाप्त तो करना ही है| जात घटेगी तो देश बढ़ेगा| वोट-बैंक की राजनीति को बेअसर करने का एक महत्वपूर्ण तरीका यह भी है कि देश में मतदान को अनिवार्य बना दिया जाए| जन-गणना से जाति को हटाना काफी नहीं है, जातिसूचक नामों और उपनामों को हटाना भी जरूरी है| जातिसूचक नाम लिखनेवालों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध होना चाहिए| उन्हें सरकारी पदों और नौकरियों से वंचित किया जाना चाहिए| यदि मजबूर सरकार के गणक लोगों से उनकी जाति पूछें तो वे या तो मौन रहें या लिखवाएं– ‘मैं हिंदुस्तानी हूं|’ हिंदुस्तानी के अलावा मेरी कोई जात नहीं है|
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक 'जनगणना से जात हटाओ' आंदोलन के सूत्रधार हैं|)
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प्रस्तुति: टी.सी. चन्दर

सोमवार, 17 मई 2010

स्वयंसेवा

अनाधिकार चेष्टा से रहें बचकर
अनाधिकार चेष्टा करने वाले व्यक्ति को प्रायः काफी नुकसान उठाने के बाद ही अक्ल आती है। अनाधिकार चेष्टा की अपनी गलती पर तब पछतावा होता है। निश्चय ही ऐसे प्रयास अन्ततः महंगे साबित होते हैं। यदि आपने अभी तक कोई छोटा-बड़ा नुकसान नहीं उठाया है और अपना रवैया बदल डालिए। किसी बड़े नुकसान के होने का इन्तजार मत कीजिए। आवश्यकता पड़ने पर हमेशा जानकार और योग्य व्यक्ति या सम्बन्धित कम्पनी की सेवाएं लीजिए। इस मन्त्र को अपनाने में ही भलाई है।
मेरे एक मित्र हैं। उनका जब कोई उपकरण, मशीन या अन्य चीज चलते-चलते रुक जाती है या काम करना बन्द कर देती है तो वे उसे लेकर बैठ जाते हैं। पेचकस-प्लास मिला तो ठीक वरना वे चाकू और रसोई में काम आने वाली सड़सी से भी भलीभांति कार्यकौशल दिखा देते हैं। उनके ऐसे प्रयासों का अन्त कैसा होता होगा, आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं। संयोग से कभी तुक्का लग गया तो उन्हें सफलता मिल जाती है और अपनी विशेषज्ञता के गर्व से उनका सीना फूल जाता है। वैसे ऐसा बहुत ही कम होता है। प्रायः यह विशेषज्ञता उन्हें अपनी जेब पर भारी ही पड़ती है। स्वयं को विभिन्न कामों में माहिर समझने के इस फेर में बहुमूल्य समय और धन बरबाद करने के साथ-साथ असुविधा झेलने वाले लोगों की कमी नहीं है।

किसी दुर्घटना के बाद, किसी के बीमार होने पर, कोई मशीन या वस्तु खराब होने पर या ऐसी ही अन्य विभिन्न स्थितियों में अनेकानेक परामर्शदाता और विशेषज्ञ अपनी राय देने लगते हैं या मरम्मत-उपचार के प्रयास करने लगते हैं। यह अनाधिकार चेष्टा ही है। इससे प्रायः अस्थायी या स्थायी रूप से नुकसान ही हासिल होता है। हर फ़न में माहिर होना सम्भव नहीं होता। किसी दुर्घटना में घायल व्यक्ति को बैठने मत दीजिए और उसे सावधानी से किसी वाहन में लिटाकर यथाशीघ्र अस्पताल पहुचाने का प्रबन्ध कीजिए।

किसी बीमार को देखने जाएं तो उसे अपनी चिकित्सकीय सलाह मत दीजिए, किसी परहेज, मालिश, किसी टॉनिक आदि के सेवन के लिए जोर मत दीजिए। हो सकता है कोई परेशान व्यक्ति या उसका परिजन आपकी बात मानकर व्यवहार में लाए और रोगी को किसी प्रकार का नुकसान उठाना पड़ जाए। आप सिर्फ उसका हालचाल पूछिए, उसकी हिम्मत बढ़ाइए और यदि उसे किसी प्रकार की मदद की जरूरत है तो यथासम्भव मदद कीजिए पर उसके भूलकर भी उसके डॉक्टर मत बनिए।

जब कोई उपकरण, मशीन या वस्तु खराब हो जाए तो स्वयं मिस्त्री या इंजीनियर मत बनिए। उसे उपयुक्त व्यक्ति के पास ले जाइए। सम्भव है उसमें कोई मामूली खराबी आ गयी हो और यह भी सम्भव है कि आपके प्रयास करने से वह बड़ी खराबी में बदल जाए जिसमें अधिक समय और पैसे लगें। सच मानिए, अनेक बार ऐसा ही होता है। हर बार तुक्का काम नहीं करता। जिस कार्य के बारे में आप नहीं जानते उसमें कुशलता हासिल करने के लिए उस कार्य को पहले सीखना, अभ्यास करना और अनुभव प्राप्त करना जरूरी होता है। जरा सोचिए, आप कितने कार्य सीखिंगे! अच्छा यही है कि आप सिर्फ अपना काम कीजिए और दूसरों को अपना काम करने दीजिए। अनाधिकार चष्टा मत कीजिए।

अनाधिकार चेष्टा करने वाले व्यक्ति को प्रायः काफी नुकसान उठाने के बाद ही अक्ल आती है। अनाधिकार चेष्टा की अपनी गलती पर तब पछतावा होता है। निश्चय ही ऐसे प्रयास अन्ततः महंगे साबित होते हैं। यदि आपने अभी तक कोई छोटा-बड़ा नुकसान नहीं उठाया है और अपना रवैया बदल डालिए। किसी बड़े नुकसान के होने का इन्तजार मत कीजिए। आवश्यकता पड़ने पर हमेशा जानकार और योग्य व्यक्ति या सम्बन्धित कम्पनी की सेवाएं लीजिए। इस मन्त्र को अपनाने में ही भलाई है।

एक बात और, जिस बात के बारे में आप स्वयं आश्वस्त या निश्चिन्त नहीं हैं, उसे आप मत कहिए। अपनी बात की औरों पर होने वाली प्रतिक्रिया का अनुमान लगाइए, बुद्धिमानी से काम लीजिए। अनेक परिस्थितयों में आपका मौन आपका और औरों का भला ही करेगा। यह बात सच है कि लोगों के साथ व्यवहार करना एक कठिन काम है। इस काम को बड़ी आसानी से आसान बनाया जा सकता है। चतुराई और सहनशीलता व्यवहार में लाएं। पर निन्दा और अप्रिय बातें न करें। अपने हृदय को निर्मल बनाएं, लोगों के अच्छे व्यवहार और गुणों की प्रशंसा करें, विनम्र बनें और भूलकर भी अनाधिकार चेष्टा न करें। निश्चिन्त रहिए, आप कभी घाटे में नहीं रहेंगे।

टी.सी. चन्दर  /प्रभासाक्षी
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