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गुरुवार, 24 जुलाई 2008

विविध

पढ़कर बन रहे हैं मीडिया वर्कर
संजय तिवारी सौजन्य: www.visfot.com

कोई 200 से ज्यादा कालेज या विश्वविद्यालय ऐसे हैं जो यूजीसी द्वारा मान्यता लेकर पत्रकारिता की पढ़ाई करवा रहे हैं. इसके अलावा लगभग 500 अन्य संस्थान हैं जो अपने दम पर पत्रकारिता की डिग्री बांट रहे हैं. लेकिन चौंकानेवाली बात यह है कि पत्रकारिता के संस्थान संख्या में जितने बढ़े हैं पत्रकारिता में उसी अनुपात में गिरावट आयी है. इन दोनों बातों का कोई संयोग होगा ऐसा नहीं कह सकते लेकिन पत्रकारिता को पढ़ाई बनानेवाली मानसिकता के बारे में आप जरूर सवाल कर सकते हैं. दुनिया में दो तरह की विचारधाराएं काम करती हैं. एक जो विकेन्द्रीकरण और वास्तविक लोकतंत्र में विश्वास करती है और दूसरी वह जो केन्द्रीकृत व्यवस्था को पसंद करती है और छद्म लोकतंत्र के सहारे अपना विस्तार करती है.
आजकल इसी छद्म लोकतांत्रिक प्रणाली का जोर है. अपने मूल में यह न केवल अति केन्द्रित है बल्कि यह प्रणाली कुछ लोगों की इच्छाओं का विस्तार मात्र है. आज व्यापार से लेकर शिक्षा तक जो कुछ हमारे सामने दिखाई दे रहा है वह इसी केन्द्रित प्रणाली से उपजा है. इसलिए जब से भूमंडलीकरण का दौर शुरू हुआ उसके बाद ही पेशेवर पढ़ाई पर जोर अचानक बहुत बढ़ गया. इतना बढ़ गया कि हमने यह कल्पना करना ही छोड़ दिया कि एजूकेशन एक सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था है और यह व्यक्ति की निजी अभिरुचि और स्वभाव के अनुसार एक स्वाभाविक प्रक्रिया में ढलता है. लेकिन दुनिया की केन्द्रीय प्रणाली ऐसा नहीं मानती. उसका मानना है कि परिवार और समाज जैसी कोई व्यवस्था हो ही नहीं सकती इसलिए जो कुछ करना है वह या तो राज्य करे या फिर बाजार उसे अपने मुताबिक करेगा.
भूमंडलीकरण के कारण पैसा बढ़ गया हो ऐसा नहीं है. हां, पैसे का चलन बढ़ गया है. पैसा ऐसी मदों पर खर्च होने लगा है जिनके बारे में कल तक हम सोच भी नहीं सकते थे. इसे पूंजी का फैलाव भी कह सकते हैं. पूंजी का यह फैलाव जैसे-जैसे बढ़ रहा है वैसे-वैसे परिवार नाम की इकाई टूट रही है. परिवार नाम की यह इकाई अकेले नहीं टूटती. इस टूटन का असर समाज और उसकी व्यवस्थाओं पर भी होता है. आर्थिक प्रणाली बदल गयी. रोजी-रोजगार के तरीकों में व्यापक फेरबदल चल रहा है. और यह फेरबदल इतना तेज है कि परिणाम पाने के लिए कोई एक शताब्दी का इंतजार नहीं करना होता. बदलाव के लिए एक दशक बहुत बड़ा समय का अंतराल होता है.
जब रोजी-रोजगार, जीवनशैली, जरूरतें और समस्याओं ने अपना स्वरूप बदल लिया तो पत्रकारिता से यह उम्मीद करना कि वह पुराने तरीकों और उपकरणों से अपना काम करती रहे, यह थोड़ा ज्यादती होती. नये तरह की पत्रकारिता की जरूरत ने लोगों के मन में यह बैठा दिया कि पत्रकारिता भी वैसा ही प्रोफेशनल कोर्स होना चाहिए जैसे कि कोई एमबीए या फिर बीसीए, एमसीए. यह मानसिकता एकांगी नहीं बनी. इस मानसिकता के पीछे हमारी आर्थिक प्रणाली में आये व्यापक बदलाव थे जिनका समाज पर असर हो रहा था. अब पत्रकारिता करनेवाले अखबारों की जरूरत शायद नहीं रह गयी है. अब सूचना देने वाले ऐसे माध्यमों की आवश्यकता है जो समाज के टूटते रिश्तों के बीच संवाद का काम कर सकें. ज्ञान और जानकारियों के रीते होते सामाजिक गागर में सूचनाओं से लबालब औजार चाहिए अखबार नहीं. जाहिर है ऐसे में पत्रकारिता की पुरानी अवधारणा को तो बिखरना ही था.
अब पत्रकारिता मीडिया वर्किंग में तब्दील हो गयी है. पत्रकार भी धीरे-धीरे मीडिया वर्कर के रूप में बदलते जा रहे हैं. पुरानी पीढ़ी के कुछ लोग जब तक हैं तब तक विरोध के छुट-पुट स्वर सुनाई देते रहेंगे. लेकिन ऐसे स्वर कोई लंबे समय तक नहीं रहने वाले. संस्थानों में फीस भरकर जो युवक/युवती मीडिया में पहुंचता है वह सीखनेवाला नहीं बल्कि सिखानेवाली मानसिकता से पहुंचता है. उसे लगता है कि उसने अपना कोर्स पूरा कर लिया अब सीखने को है क्या? अपने से थोड़ा भी ऊपर कोई है तो वह उसे बेदखल करके अपनी नयी सोच को स्थापित करना चाहता है. इसमें अन्यथा कुछ भी नहीं है. पेशेवर शिक्षा का यह अनिवार्य दोष है. जब हम किताबी पढ़ाई को व्यावहारिक ज्ञान के ऊपर हावी करने लगते हैं तो केवल ज्ञान ही पीछे नहीं छूटता पूरी प्रणाली आपदाग्रस्त हो जाती है.
मीडिया वर्करों की बढ़ती फौज के बीच किसी दिन पत्रकारिता की अर्थी निकल जाए तो इसमें हैरान होने की जरूरत नहीं है. वैसे भी अब इंजीनियरिंग, विज्ञान, वाणिज्य, कला सब कुछ तो स्कूलों कालेजों के भरोसे ही चल रहा है. कितने लोगों को इस बात का अंदाज होगा कि स्कूल ही शिक्षा के एकमात्र माध्यम नहीं होते. यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है लेकिन उन्नत समाज में स्कूल नहीं होते. स्कूल तो निम्नतर समाज के लिए जरूरी हैं. उन्नत समाज परंपरा में जीता है. वह अपनी जरूरतों के हिसाब से अपनी परंपरा में आविष्कार और परित्याग दोनों का समावेश रखता है. संयोग से भारत ऐसा ही देश रहा है. यहां पढ़ाई से नहीं बल्कि प्रतिभा से पेशे के चयन की आजादी रही है. लेकिन जब पूरा समाज ही भ्रंस पर जा खड़ा हुआ हो तो पत्रकारिता में पढ़ाई और पढ़ाई से पैदा हुए क्षरण को कोई रोक नहीं सकता.
इस बात को समझना होगा कि पत्रकारिता में आये क्षरण का एक बड़ा कारण पत्रकारिता की पढ़ाई भी है. आज कोई समझे न समझे एक दिन इस बात का अंदाज लोगों को होगा. पत्रकारिता संस्थानों से जितना पढ़ा-लिखा मीडिया वर्कर निकलता है उससे ज्यादा प्रतिभावान लोग बाहर ही रह जाते हैं. वैसे भी पढ़ने पर जो पैसा खर्च करता है उसे उस पैसे का रिटर्न चाहिए. जिन्हें पत्रकारिता करनी हो वो करें. मीडिया संस्थानों से निकलनेवाले लड़कों को नौकरी और स्टार रिपोर्टर का तमगा मिनट भर के अंदर चाहिए. कोई अपवाद होगा तो कह नहीं सकते लेकिन ज्यादातर लोगों में यही प्रवृत्ति होती है. वैसे भी 2012 तक मीडिया इंडस्ट्री एक लाख करोड़ का धंधा होगी. उस धंधे को चलाए रखने के लिए बाजार को इंसानी उपकरण चाहिए पत्रकार नहीं, इसलिए बड़ा सवाल तो यह है कि क्या पत्रकारिता जैसी बातें उसके बाद भी जीवित रहेंगी?
विस्फोट फोरम में भी यह बहस उपलब्ध है जहां आप अपने विचार रख सकते हैं।
09 June, 2008
प्रस्तुति: टी.सी. चन्दर

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